मैं कोई “आंधी” नहीं
कि जिससे तुझमें उठे “हिलोर”।
वो शब्द भी नहीं हूं मैं
जिसका कोई ठीक-ठाक मतलब हो,
अखरोट के खोल सा
बाहर से हूं सख्त-सख्त
पानी भी हूं, भाप भी और
बर्फ सा सर्द भी,
अब समझ की बात है तेरी
तू क्या समझे मुझको नादां ।
भागती फिरती है कहां तू
ढुंढ़ती रहती है किसको तू ?
जंगल-जंगल...शहर-शहर
इस गली से उस गली ।
रूक जा तू एक “ठौर” जरा सा
ठोक-बजाकर देख जरा सा
पा जाएगी फिर तू सोना
भूल जाएगी पीतल रोना।
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