शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011

श्री लाल शुक्ल



कहानियां संपूर्ण जीवन को परिभाषित करती है..... कविताएं किसी खास पल को या फिर किसी खास मकसद को जीवंत स्वरूप देती है.... दोनों का अपना-अपना वजूद है, अपनी-अपनी परिभाषाएं हैं.... दोनों को पसंद करने वालों का भी अपना-अपना तर्क है... लेकिन साहित्य की इन दोनो विधाओं से अलग एक ऐसी विधा भी है, जिसको पढ़कर इंसान मुस्कुराता है....हंसता है...सोचता है और फिर, फिर मुस्कराता है... हम आज ऐसी ही विधा की बात करेंगे... आप तो  अब समझ ही गए होंगे, हम बात कर रहे हैं साहित्य की व्यग्यात्मक विधा की... हम आज बात करेंगे एक ऐसे व्यंग लेखक की जिसने राग दरबारी लिखकर साहित्य की दुनिया में तहलका मचा दिया... आपने ठीक समझा आज हम श्री लाल शुक्ल की बात करेंगे...

श्री लाल शुक्ल और उनके व्य्गय लेखन की बात शुरू करें... उससे पहले हम आपलोगों को उनका पूरा परिचय दे दे....श्री लाल शुक्ल का जन्म लखनऊ के अटरौली गांव में 31दिसंबर 1925 को हुआ था... उनकी प्रारंभिक शिक्षा लखनऊ में हुई... जबकि इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होने ग्रेजुएशन की डिग्री पूरी की.... और 1949 में वो प्रशासनिक सेवा में आ गए। श्रीलाल शुक्ल के साहित्यिक सफर की बात करें तो उनका पहला उपन्यास सूनी घाटी का सूरज 1957 में और पहला व्यंग्य अंगद का पांव 1958 में प्रकाशित हुई....जबकि पूरी दुनिया में जिस राग दरबारी की वजह से वो प्रसिद्द हुए वो किताब प्रकाशित होकर लोगों के सामने 1968 में आई....श्री लाल शुक्ल को 2009 में भारतीय साहित्य के सबसे बड़े पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया... ज्ञानपीठ के अलावा उन्हें भारत सरकार ने 2008 में पद्म भूषण से सम्मानित किया.... 1999 में उन्हें व्यास सम्मान और 1995 में यश भारती सम्मान के अलावे कई और पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।

श्रीलाल शुक्ल की चर्चित उपन्यासों में सूनी घाटी का सूरज, अज्ञातवास, रागदरबारी, आदमी का जहर, सीमाएं टूटती है, मकान, पहला पड़ाव, विश्रामपुर का संत, अंगद का पांव, यहां से वहां, उमरानवगर में कुछ दिन शामिल हैं.... जबकि यह घर मेरा नहीं है, सुरक्षा तथा अन्य कहानियां, इस उम्र में...उनकी प्रमुख कहानी संग्रह है। जबकि अंगद का पांव, यहां से वहां, कुछ जमीन पर कुछ हवा में, आओ बैठ ले कुछ देर भी प्रमुख रचनाएं हैं।   

अब बात राग दरबारी की...राग दरबारी 1968-69 में प्रकाशित हुई थी.... राग दरबारी ने सच्चे हिन्दुस्तान के दर्शन कराए... इस उपन्यास के जरिए लोगों को ये पता चला कि गांव के पटवारी की क्या-क्या कारगुजारियां होती हैं.... सरकारी हाकिम और दूसरे कारकून क्या-क्या गुल खिलाते रहते हैं ? गाँव और स्वतंत्र भारत के बीच किस प्रकार के रिश्ते आकार ले रहे हैं..... जनप्रतिनिधि के संपर्क में आकर गांव की तस्वीर कैसे बदल रही है....। राग दरबारी संक्रमणकालीन ग्रामीण भारत खासकर उत्तर भारत का एक ऐसा महाड्रामा है जिसमें नायक 'अनुपस्थित'  है, लेकिन विदूषक दृश्यमान है.... हर विदूषक पात्र की अपनी एक गाथा है और सबों की साझी गाथा विराट ड्रामा को जन्म देती है। रागदरबारी जब प्रकाशित हुई थी तब शुक्ल साहब की उम्र लगभग तैंतालीस साल थी। इसे लिखने में उनको करीब पांच साल लगे। उत्तर प्रदेश शासन में अधिकारी होने के नाते उनको यह ख्याल आया कि इसके प्रकाशन की अनुमति भी ले ली जाये। हालांकि इसके पहले भी उनकी किताबें छप चुकी थीं और उनके लिये कोई अनुमति नहीं ली गई थी। लेकिन रागदरबारी में तमाम जगह शासन व्यवस्था पर व्यंग्य था इसलिये एहतियातन यह उचित समझा गया कि शासन से अनुमति ले ली जाये....उन्होने अनुमति के लिए शासन को चिट्ठी लिखी... । शुक्ल साहब की चिट्ठी का कोई जवाब नहीं आ रहा था कि इस बीच उन्होंने नौकरी छोड़ने का मन बना लिया था..... अज्ञेय जी की जगह दिनमान सापताहिक में संपादक की बात भी तय हो गयी थी... यह सब होने के बात श्रीलालजी ने उत्तर प्रदेश शासन को एक विनम्र लेकिन व्यंग्यात्मक पत्र लिखा जिसमें इस बात का जिक्र था कि उनकी किताब पर न उनको अनुमति मिली न ही मना किया जा रहा है.... इस पत्र का इतना असर हुआ कि उन्हें तुरंत रागदरबारी के प्रकाशन की अनुमति मिल गयी.... और, आज यह राजकमल प्रकाशन से छपने वाली सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों में से एक है।

एक बार जब उनसे ये पूछा गया कि रागदरबारी के लिये उन्हें साहित्यिक मसाला कहां से.... और कैसे उन्होंने इसका संकलन किया.... इसपर श्री लाल शुक्ल जी ने जवाब दिया कि उन्होने जो देखा वही राग दरबारी का मसाला है... इसमें न तो कुछ जोड़ा गया है और न इसमें कल्पना का रंग भरा गया है.....।  राग दरबारी के प्रकाशन के पहले पांच बार इसे संवारा सुधारा गया.... इसे लिखने के समय श्रीलालजी की नियुक्ति बुंदेलखंड के पिछ्ड़े इलाकों में रही.... कुछ हिस्से तो वीराने में जीप खड़ी करके लिखे गये... वंशवाद, कुनबापरस्ती, जाति प्रेम, राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण सरीखी विकृतियां जो आज भारतीय जनतंत्र के लिए बड़ी चुनौती बन गयी हैं, राग दरबारीमें उनकी गहरी शिनाख्त है.

श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास राग दरबारीसाठ के दशक से लेकर अब तक का ऐसा रचनात्मक विस्फ़ोट सिद्ध हुआ है, जिसे पछाड़ना अभी भी शेष है....  राग दरबारीका शिवपालगंज समूचे भारतीय समाज का वह देशज प्रतिरूप है, जहां जनतंत्र एक प्रहसन तंत्र के रूप में तब्दील हो गया है. आज जब भ्रष्टाचार को लेकर समूचे देश में आंदोलन और बहस का दौर जारी है, तो राग दरबारी का याद आना स्वाभाविक ही है. भारत जैसे अर्ध सामंती और विकासोन्मुख देश में जनतंत्र को कैसे निहित स्वार्थो के लूटतंत्र में बदला जा सकता है, शिवपालगंज इसकी छोटी-मोटी प्रयोगशाला है. सचमुचमहाभारत की तरह जो कहीं नहीं है, वह यहां है और जो यहां नहीं है, वह कहीं नहीं है.

रागदरबारी आजादी के बाद स्थापित हुयी व्यवस्था में ग्राम्य जीवन की समीक्षा है। 1947 के बाद उत्तर भारत के गाँवों में जन्मी विसंगतियों को एक उपन्यास में समेट कर रख देना और पूरे उपन्यास में व्यंग्य की धार को सतत बनाये रखना बहुत कौतुकपूर्ण लगता है। एक दृश्य देखिये- ऐसे भुखमरे वातावरण में अखाड़े क्या खा कर या खिला कर चलते? कुछ वर्ष पहले गांव के लड़के कसरत और कुश्ती से चूर-चूर होकर लौटते तो कमसे कम उन्हें भिगोये हुये चने और मट्ठे का सहारा था। अब वह सहारा भी टूटने लगा था। यह और इस प्रकार के बई तथ्य मिलकर कुछ ऐसा वातावरण पैदा कर रहे थे कि गांव में निकम्मा बन जाने के सिवाय और दूसरा कार्यक्रम ही नहीं मिलता था।

हरिशंकर परसाई के बाद भारत में श्री लाल शुक्ल जैसा व्य्ग्यकार कोई और नहीं हुआ.... उनके व्यंग्य की तुलना केवल पाकिस्तान के उर्दू लेखक मुश्ताक अहमद यूसुफी से ही हो सकती है पर यूसुफी के पास भी कथानक की कमी होती है... दोनों की तुलना की जाये तो हम कह सकते हैं कि श्रीलालजी जलेबी बनाते हैं जिसके लिए चाशनी की जरूरत पड़ती है जबकि यूसुफी जी के पास चाशनी का भंडार है जिसे खपाने के लिए वे उसी मात्रा में मिष्ठान्न बना रहे होते हैं।

आज भी श्री लाल शुक्ल साहब लिखना चाहते हैं... समाज में फैली व्यवस्था को अपनी खाटी अंदाज में लोगों के सामने लाना चाहते हैं लेकिन बूढ़ा शरीर उनका साथ नहीं देता...खैर उन्होंने जो लिख दिया वो हर युग के लिए पठनीय और सम्नानीय  है.... ऐसा नहीं है कि वक्त बीतने के साथ उनका लेखन आउठडेटेड हो गया हो.... आज भी राग दरबारी और विश्रामपुर का संत उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उस वक्त था... यानि कह सकते हैं कि ये कालजयी रचनाएं हैं।

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