शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2011

राहुल सांकृत्यायन


सैर कर दुनिया की गाफिल, जिंदगानी फिर कहां
जिंदगानी गर रही तो नौजवानी फिर कहां.....
एक ऐसे घुमक्कड़ जिसे काशी के विद्वानों ने महापंडित कह कर नवाजा....जिसने अपने जीवन में कई बार अपनी विचारधारा औऱ वेषभूषा बदली.....ब्राह्मण से लेकर बौद्ध भिक्षु तक....किसान नेता से संन्यासी और साम्यवादी तक....जिसने जीवन के तमाम रंगों को करीब से देखा....दुर्लभ ग्रंथों की खोज में जो हजारों मील दूर पहाड़ों और नदियों के बीच भटकते रहे... उन ग्रंथों को हजारों मील दूर से खच्चरों पर लादकर अपने देश लाए...ऐसे ही घुमक्कड़ थे वो जिसे दुनिया राहुल सांकृत्यायन के नाम से जानती है।

हम महापंडित राहुल सांकृत्यायन के जीवन के हर रंग से आपको रूबरू कराएंगे लेकिन उससे पहले हम आपको उनके जीवन परिचय और उस रोमांचक सफर के बारे में बता दे जिस सफर की वजह से वो महापंडित राहुल सांकृत्यायन हो गए। राहुल जी का जन्म नौ अप्रैल 1893 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में हुआ था और उनके पिता गोवर्धन पाण्डेय ने उनका नाम केदारनाथ पाण्डेय रखा था। पढ़ाई लिखाई गांव में ही शुरू हुई और उनकी शादी बचपन में ही कर दी गई...इस शादी ने उनके मशतिष्क पर गहरा असर डाला और किशोरावस्था में ही घर छोड़कर बाहर निकल गए। घर से भाग कर केदारनाथ एक मठ में साधु हो गए.... लेकिन अपनी यायावरी स्वभाव की वजह से वो वहां भी टिक नही पाये.... चौदह साल की उम्र में वो कलकत्ता भाग आए.... सच्चे ज्ञान के लिए वो यहां से वहां सारे भारत का भ्रमण करते रहे।

केदारनाथ जब मठ में साधु हुए तो उनका नाम रामोदर साधु रखा गया.... 1930 में वो श्रीलंका जाकर बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गए....जहां वो रामोदर साधु से राहुल हुए और सांकृत्य गोत्र की वजह से सांकृत्यायन....उनकी अदभुत तर्कशक्ति और अनुपम ज्ञान भण्डार को देखकर काशी के पंडितों ने उन्हें महापंडित की उपाधि दी...और इस तरह वे केदारनाथ पाण्डे से महापंडित राहुल सांकृत्यायन हो गये।

1932 में राहुल जी यूरोप की यात्रा पर गए....उसके बाद 1935 में उन्होंने जापान, कोरिया, और मंचूरिया की यात्रा की.... 1937 में वो रूस चले गए औऱ वहीं के लेनिनग्राद के एक स्कूल में संस्कृत शिक्षक की नौकरी कर ली... इसी दौरान उन्होने ऐलेना नाम की रूसी लड़की से शादी कर ली...ऐलेना से उन्हें एक बेटा भी हुआ जिसका नाम रखा गया इगोर राहुलोविच... ग्यारह साल रूस में रहने के बाद वो 1948 में भारत लौट आए...1950 में राहुल जी ने नैनीताल में अपना घर बना लिया और वहीं रहने लगे...यहीं पर उनकी तीसरी शादी कमला सांकृत्यायन से हुई...राहुल जी एक जगह टीक कर कभी नहीं रह सके...नैनीताल में भी उनका मन नहीं लगा और कुछ सालों बाद दार्जलिंग जाकर रहने लगे।
अब तक हम आपको राहुल सांकृत्ययान जी के जीवन सफर की बात बता रहे थे अब बात उनके उस सफर की जिसके लिए दुनिया उन्हें युगो-युगों तक याद रखेगी...यानि उनकी साहित्यिक सफर के लिए....छत्तीस भाषाओं के ज्ञाता राहुल जी ने उपन्यास, निबंध, कहानी, आत्मकथा, संस्मरण और जीवनी जैसी विधाओं में साहित्य सृजन का काम किया...उनकी प्रसिद्द कहानियों में सतमी के बच्चे, वोल्गा से गंगा, बहुरंगी मधुपुरी, कनैला की कथा शामिल है...जबकी उन्होंने बाईसवीं सदी, जीने के लिए, सिंह सेनापति, भागो नहीं, दुनिया को बदलो, मधुर स्वप्न, विस्मृत यात्री और दिवोदास जैसे चर्चित उपन्यासों की रचना की....अपनी आत्मकथा उन्होने मेरी जीवन यात्रा के नाम से लिखी जबकि सरदार पृथ्वीसिंह, नए भारत के नए नेता, अतीत से वर्तमान, स्तालिन, लेनिन, कार्ल मार्क्स, माओ-त्से-तुंग, घुमक्कड़ स्वामी, मेरे असहयोग के साथी, कप्तान लाल, सिंहल के वीर पुरुष और महामानव बुद्ध जैसी जीवनियां भी लिखी...यात्रा साहित्य की बात करें तो लंका, जापान. इरान, किन्नर देश की ओर, चीन में क्या देखा, मेरी लद्दाख यात्रा और मेरी तिब्बत यात्रा जैसे संस्मरण लिखे।
21 वीं सदी के इस दौर में जब संचार-क्रान्ति के साधनों ने समग्र विश्व को एक ग्लोबल विलेजमें बदल है इण्टरनेट ने ज्ञान का समूचा संसार क्षण भर में एक क्लिक पर सामने ला दिया है..... ऐसे में यह अनुमान लगाना कि कोई व्यक्ति दुर्लभ ग्रन्थों की खोज में हजारों मील दूर पहाड़ों और नदियों के बीच भटकने के बाद.... उन ग्रन्थों को खच्चरों पर लादकर अपने देश में लाए, रोमांचक लगता है....पर ऐसे ही थे घुमक्कड़ी प्रवृत्ति के महान् पुरूष महापंडित राहुल सांकृत्यायन।
महापंडित राहुल जी एक ऐसे घुमक्कड़ थे जो सच्चे ज्ञान की तलाश में थे और जब भी सच को दबाने की कोशिश की गई तो वह बागी हो गया। उनका सम्पूर्ण जीवन अन्तर्विरोधों से भरा पड़ा है... वेदान्त के अध्ययन के पश्चात जब उन्होंने मंदिरों में बलि चढ़ाने की परम्परा के विरूद्ध व्याख्यान दिया तो अयोध्या के सनातनी पुरोहित उन पर लाठी लेकर टूट पड़े.... बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बावजूद वह इसके पुनर्जन्मवादको नहीं स्वीकार पाए। बाद में जब वे मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हुए तो उन्होंने तत्कालीन सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में घुसे सत्तालोलुप सुविधापरस्तों की तीखी आलोचना की और उन्हें आन्दोलन के नष्ट होने का वजह बताया। सन् 1947 में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रूप में उन्होंने पहले से छपे भाषण को बोलने से मना कर दिया और जो भाषण दिया, वह अल्पसंख्यक संस्कृति एवं भाषाई सवाल पर कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों के विपरीत था। नतीजन पार्टी की सदस्यता से उन्हें वंचित होना पड़ा, पर उनके तेवर फिर भी नहीं बदले।
एक कर्मयोगी योद्धा की तरह राहुल सांकृत्यायन ने बिहार के किसान-आन्दोलन में भी प्रमुख भूमिका निभाई.... सन् 1940 में किसान-आन्दोलन के सिलसिले में उन्हें एक साल की जेल हुई तो देवली कैम्प के इस जेल-प्रवास के दौरान उन्होंने दर्शन-दिग्दर्शनग्रन्थ की रचना कर डाली.... 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के बाद जेल से निकलने पर उन्हें स्वामी सहजानन्द सरस्वती की ओर प्रकाशित साप्ताहिक पत्र हुंकारका सम्पादक बनाया गया। यहां भी उनके तेवर नर्म नहीं पड़े...गुण्डों से लड़िए नाम के ब्रिटिश सरकार के  विज्ञापन को छापने से मना करने की वजह से उन्होंने खुद को हुंकार से अळग कर लिया।
1910 में घर छोड़ने के बाद 1943 में वो अपने ननिहाल पन्दहा पहुँचे.... लेकिन जब वे पन्दहा पहुँचे तो कोई उन्हें पहचान न सका.....आखिरकार लाहौर नाम के एक बुजूर्ग व्यक्ति ने उन्हें पहचाना और कुलवन्ती के पूत केदारकहकर राहुल को अपनी बाँहों में भर लिया.... अपनी जन्मभूमि पर एक बुजुर्ग की परिचित आवाज ने राहुल को भावविभोर कर दिया। उन्होंने अपनी डायरी में इसका उल्लेख भी किया है- ‘‘लाहौर नाना ने जब यह कहा कि अरे ई जब भागत जाय त भगइया गिरत जायतब मेरे सामने अपना बचपन नाचने लगा। उन दिनों गाँव के बच्चे छोटी पतली धोती भगई पहना करते थे। गाँववासी बड़े बुजुर्गों का यह भाव देखकर उन्हें ये महसूस होने लगा कि तुलसी दास ने यह झूठ कहा है कि- "तुलसी तहाँ न जाइये, जहाँ जन्म को ठाँव, भाव भगति को मरम न जाने धरे पाछिलो नाँव।।’’
राहुल सांकृत्यायन का मानना था कि घुमक्कड़ी मानव-मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है.... उन्होंने कहा भी था कि- "कमर बाँध लो भावी घुमक्कड़ों, संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।" राहुल जी वास्तव के ज्ञान के लिए गहरे असंतोष में थे, इसी असंतोष को पूरा करने के लिए वे हमेशा तत्पर रहे। उन्होंने हिन्दी साहित्य को विपुल भण्डार दिया। उन्होंने मात्र हिन्दी साहित्य के लिए ही नही बल्कि भारत के कई अन्य क्षेत्रों के लिए भी शोध कार्य किया। वे वास्तव में महापंडित थे। राहुल जी की प्रतिभा बहुमुखी थी और वे संपूर्ण विचारक थे।

राहुल सांकृत्यायन के लिए घुमक्कड़ी आदत नहीं बल्कि उनका धर्म था...आधुनिक हिन्दी साहित्य में राहुल सांकृत्यायन एक यात्राकार, इतिहासविद्, तत्वान्वेषी, युगपरिवर्तनकार साहित्यकार के रूप में जाने जाते है। राहुल जी का समग्र जीवन ही रचनाधर्मिता की यात्रा थी। जहाँ भी वे गए वहाँ की भाषा और बोलियों को सीखा... वो जहां भी गए वहाँ के लोगों में घुलमिल गए....और वहाँ की संस्कृति, समाज और साहित्य का गूढ़ अध्ययन किया।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन जी ने एक जगह लिखा है, मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु है घुमक्कड़ी। घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता। दुनिया दुख में हो चाहे सुख में, सभी समय यदि सहारा पाती है तो घुमक्कड़ों की ही ओर से.....अपनी जिंदगी के आखिरी दिनों में जब वो दार्जिलिंग में रह रहे थे, डाइबिटिज की बीमारी ने उन्हे जकड़ लिया, इसके इलाज के लिए वो रूस भी गए...लेकिन सात महीने तक इलाज कराने के बाद भी कोई फायदा नहीं हुआ और वो दार्जिलिंग लौट आए... दार्जिलिंग में ही 14 अप्रैल 1963 को उनका देहांत हो गया।


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