बाला साहेब ठाकरे और विवाद हमेशा साथ-साथ चलते रहे.... बतौर आर्टिस्ट और जनसमुदाय के नेता के तौर पर हिटलर की तारीफ कर उन्होंने जबर्दस्त विवाद पैदा किया था...... लिट्टे का समर्थन, वैलंटाइन्स डे जैसी चीजों का जबर्दस्त विरोध उनके विवादों की लिस्ट बढ़ाती रहीं.... जिस शख्स का जीवन इतना विवादित हो उस पर कई तरह की चीजें लिखी-पढ़ी जानी आम होती हैं। सलमान रुश्दी ने द मूर्स लास्ट सिंह नाम के अपने नॉवेल में ठाकरे पर व्यंग्य कसा..... वहीं रामगोपाल वर्मा की मूवी सरकार और सरकार राज भी बाल ठाकरे की जीवन की ही कहानी कहती हैं।
बाल ठाकरे ने फ्री प्रेस जर्नल और नवशक्ती अखबार से अपने करियर की शुरूआत की थी... 1960 में उन्होने मार्मिक नाम से अपनी खुद की पॉलीटिकल मैगजीन शुरू की। मार्मिक, कार्टूनों पर आधारित एक साप्ताहिक पत्रिका थी जिसके जरिए बालासाहेब ने मराठी अस्मिता का सवाल जन-जन तक पहुंचाने का काम किया।
जब मार्मिक की शुरुआत हुई उस वक्त सत्ता की बागडोर कांग्रेस के हाथ में थी.....क्लर्क और इससे ऊपर के लेवल की ज्यादातर वाइट कॉलर जॉब्स पर दक्षिण भारतीयों या दूसरे गैरमराठियों का कब्जा था... संयुक्त महाराष्ट्र तो बन गया, लेकिन मुंबई में मराठी मानुष के हित का कोई रखवाला नहीं, इस आक्रामक विचार के साथ मार्मिक में हर सप्ताह सरकारी दफ्तरों में काम करने वाले गैरमराठी खासकर दक्षिण भारतीय अधिकारियों और कर्मचारियों की लिस्ट छपने लगी.... धीरे-धीरे बाला साहेब ठाकरे की पहचान एक ऐसे शख्स के रूप में होने लगी जो सिर्फ और सिर्फ मराठी मानुष के हितों की बात करता था उनके हक की आवाज़ उठाता था।
इसी दौरान ठाकरे ने लुंगी हटाओ-पुंगी बजाओ जैसा नारा दिया... मराठी अस्मिता की इस राजनीति को देख मुंबई के ट्रेड यूनियन की राजनीति करने वाले कम्युनिस्ट संगठन भड़क उठे.... 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय कम्युनिस्टों ने चीन के समर्थन में भारत बंद का आह्वान किया.... ठाकरे ने इस मौके पर अपना हिसाब चुकता किया..... मार्मिक में कॉमरेड एस. ए. डांगे, आचार्य अत्रे और एस. एम. जोशी जैसे नेताओं की कड़ी निंदा करते हुए भारत माता के तीन दलाल टाइटिल के साथ इन तीनों नेताओं के कार्टून छपे। कुछ ही सालों में ये साप्ताहिक, मराठी मानुष के हक में लड़ने वाले एक आंदोलन में तब्दील हो गया।
मराठा तितुका मेळवावा........महाराष्ट्र धर्म वाढवावा.........(txt लिखें ) यानी मराठियों को इकट्ठा करो, महाराष्ट्र धर्म को बढ़ावा दो........ इसी नारे के साथ 19 जून 1966 में शिवसेना की स्थापना हुई। लोकसभा के 1967 के चुनाव में शिवसेना ने पहली बार दक्षिण मुंबई में कांग्रेस के पाटिल और नॉर्थ ईस्ट मुंबई में कृष्ण मेनन के खिलाफ बर्वे जैसे मराठी उम्मीदवारों का समर्थन किया.... बर्वे तो चुनाव जीत गए लेकिन जॉर्ज फर्नांडिस ने पाटिल को हराया...... इस चुनाव से शिवसेना को राजनीति की ऊर्जा मिली।
1968 में मुंबई महापालिका के चुनाव में पहली बार शिवसेना के 40 कॉरपोरेटर चुने गए.... शिवसेना की राजनीति सामाजिक कामों पर निर्भर थी.... नौजवानों को अपने पक्ष में जुटाने के लिए क्रिकेट मैच से लेकर एस.एस.सी एग्जाम के लिए कोचिंग क्लास तक अनेक कार्यक्रम चलाए गए....और इन योजनाओं के बल पर शिवसेना ने अपना विस्तार महाराष्ट्र के जन-जन तक कर लिया।
मराठी बेरोजगार युवकों की सूची बनाने का काम शिवसेना की हर शाखा पर शुरू हुआ.... मुंबई में वड़ा पाव बेचनेवाले मराठी हॉकर्स नजर आने लगे..... हर नुक्कड पर शिवसेना का संदेश पहुंचाने वाले ब्लैक बोर्ड्स और हर शाखा पर मरीजों की सेवा के लिए दौड़ने वाली एम्बुलैंस दिखने लगीं।
महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद में शिवसेना ने कड़ा संघर्ष किया.... आज तक ये विवाद सुलझ नहीं पाया, लेकिन 50 से अधिक शिवसैनिक इस संघर्ष में मारे गए। 70 के दशक में मुंबई के कम्युनिस्ट लीडर और एमएलए कृष्णा देसाई के खून के छींटे भी शिवसेना के दामन पर गिरे। लेकिन उसी चुनाव क्षेत्र पर हुए उपचुनाव में शिवसेना के वामनराव महाडीक 1500 वोटों से जीते और शिवसेना के दबदबे को एक नई दिशा मिली।
इस जीत के बाद ही शिवसेना मुंबई की ट्रेड यूनियनों पर अपना प्रभुत्व जमाने में सफल रही... देसाई की मौत के बाद कम्युनिस्ट यूनियन दत्ता सामंत के हाथों आई, मगर तब तक शिव सेना का वर्चस्व स्थापित हो चुका था।
कांग्रेस विरोध के बल पर शिवसेना ने अपनी पहचान बनाई थी.... लेकिन बाला साहेब ठाकरे ने 1975 में इमर्जेंसी के दौरान इंदिरा गांधी का खुला समर्थन कर दिया.... और इस समर्थन का उन्हें खमियाजा भी भुगतना पड़ा..... 1978 में मुंबई महानगर पालिका के चुनाव में शिवसेना धराशाई हो गई।
1978 से 1984 तक मुंबई में शिवसेना का असर काफी कम हो गया था.... लेकिन इस दौरान ठाकरे ने फिर से कांग्रेस से दूरी बना ली और मुंबई महानगर पालिका के 1985 में हुए चुनाव में 170 में 74 सीटें जीतकर साबित कर दिया कि मुंबई उन्हीं की है.....और वही मुंबई के एकटा टायगर हैं।
इससे पहले 1984 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से करारी शिकस्त मिलने के बाद बाल ठाकरे ने बीजेपी नेता प्रमोद महाजन से कहा था.... आनेवाले दिनों में इस देश का हर हिंदू सिर्फ हिंदुत्व के लिए वोट दे, इसके लिए कुछ करना होगा। महाजन ने उन्हें समझाया कि इस देश में हर हिंदू ब्राह्माण, मराठा, दलित, गुजराती, जाट बनकर वोट देता है। हिंदू कभी हिंदुओं के लिए वोट नहीं करता। तब ठाकरे ने कहा, कुछ साल पहले जब शिवसेना का जन्म हुआ था, तब लोग यही कहते थे कि संकीर्ण विचारों का मराठी मानुष उसके लिए लड़ने वाली शिवसेना को मराठी बनकर कभी वोट नहीं करेगा। लेकिन उन्होंने इस तर्क को गलत साबित कर दिखाया है। अगले पांच साल में इस देश का हिंदू, हिंदुत्व के लिए वोट करता नजर आएगा। ये चमत्कार वो करके दिखाएंगे । इसके सिर्फ तीन साल बाद मुंबई में विलेपार्ले का उपचुनाव हिंदुत्व के नाम पर जीतकर शिवसेना ने नया इतिहास रचा। इस जीत के बाद महाराष्ट्र की हर पंचायत, जिला परिषद, नगर पालिका और महानगर पालिका में शिवसेना ने अपना आक्रामक विस्तार शुरू किया।
90 के दशक के शुरुआत में ही ठाकरे ने मुंबई नेतृत्व के प्रति अपना रुझान साफ कर दिया था... इसीलिए मुंबई के बाहर शिवसेना खड़ी करने वाले छगन भुजबल सत्ता मिलने के पहले ही शिवसेना को अलविदा कर चुके थे। सत्ता में आने पर ठाकरे ने ऐसा मंत्रिमंडल बनाया, जिसमें सिर्फ मराठाओं का ही वर्चस्व नहीं था.... इस दौरान शिवसेना ने विद्यार्थी सेना, कामगार सेना और स्थानीय लोकाधिकार समितियों के जरिए पूरे सूबे में अपनी पैठ बनाई।
मराठी मानुष के बीच शिवसेना लगातार मजबूत हो रही थी लेकिन 1999 में हुए चुनाव में पार्टी गुटबाजी और एंटी इनकमबैंसी का शिकार हो गई और सत्ता में उसकी वापसी नहीं हो पाई.... सत्ता जाने के बाद सेना में बिखराव शुरू हो गया, जो अभी तक जारी है। कोंकण से नारायण राणे, विदर्भ से सुबोध मोहिते, मराठवाड़ा से विलास गुंडेवार, सुरेश देशमुख, तुकाराम रेंगे पाटील जैसे कई सांसद और नेताओं ने पिछले एक दशक में पार्टी छोड़ी।
राज ठाकरे को ये अंदाज ये तेवर अपने चाचा बाल ठाकरे से मिला है... कार्यकर्ताओं के बीच घुस जाना, आक्रामक ढंग से सरकारी मशीनरी से दो-चार होना और विपक्ष के खिलाफ धारदार जुबान का इस्तेमाल...इन सबके बल पर कार्यकर्ताओं के बीच राज की अलग जगह बनने लगी...उधर उद्धव सौम्यता की राजनीति के कायल थे। उनका मानना था कि शिवसेना को सिर्फ मराठी अस्मिता की राजनीति करने के बजाय राष्ट्रीय स्तर पर अपनी भूमिका तलाशनी होगी। उन्होंने दिल्ली तक में पार्टी के अधिवेशन करने शुरू किए। बाल ठाकरे ने जब उद्धव को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया तो राज की महत्वाकांक्षा उबाल मारने लगी.... और शिवसेना को गुड बाय कह कर राज ठाकरे ने नई पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन कर लिया.....और फिर राज ने आजमाए हुए फॉर्म्युले को अपनाया और मराठी मानुष की राजनीति नए कलेवर के साथ शुरू की जो कभी उनके चाचा बाला साहेब ठाकरे की पहचान हुआ करती थी।
बाला साहेब ठाकरे..... इस नाम और चेहरे के बारे में सोचने के बाद चुप्पी नामुमकिन हो जाती है.... किसी के लिए वो मुंबई के माफिया हैं....तो किसी के लिए हिंदुत्व के नायक। भूमिपुत्र की राजनीति करने वाले ठाकरे ने शिवसेना और अपनी सत्ता के विस्तार की चाहत में हिंदुत्व की नाव की सवारी की.... और इसी नाव पर सफर करते-करते बाला साहेब ठाकरे राजनीति के उस मंजिल तक पहुंच गए जहां पहुंचना राजनीति के दिग्गजों के लिए किसी सपने जैसा है....तभी तो मराठी मानुष अपने इस नायक-खलनायक को एकटा टायगर कहते हैं।

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