सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

आंसू...जब 'शब्द' बन गए



दिव्यांश का जाना लाख-लाख सपनों का जाना है......मां के अरमानों का जाना है, पिता की उम्मीदों का जाना है.......। उस उम्मीद की भारपाई अब कभी नहीं होगी....वो सपने, अब कभी पूरे नहीं होंगे......इस आंगन में अब मां की वो दिव्य आवाज कभी सुनाई नहीं देगी...जो दिव्यांश से थी, उसकी मस्ती से थी, उसकी शरारत से थी । दिव्यांश के लिए उसकी मां की ममता अब कागज पर कोरे शब्द हैं...हजार-हजार सवाल हैं...जरा पढ़िए उन सवालों को 
चांद वही है..तारे वही है
तेरे बिस्तर पर तेरी मां वही है
पापा वही है, तकिया वही है, चादर वही है
पर मेरे साथ, मेरे लाल, आज तू नहीं है
तेरे खिलौने देखूं
तेरी कार देखूं
पर मेरे चांद तेरा चेहरा
मैं आज कैसे देखूं ?
छुता था कल तक इन सबको अपने हांथों से
यही सोच आज इन्हें गले से लगा रही हूं...
आंखें बंद करूं, तो तू दिखे
आंखें खोलूं , तो तू ओझल हो जाए
एक बार तूने जाते वक्त 'मां'
पुकारा तो होता !
काश ! मैं तेरे साथ होती
काश ! आज तू मेरे पास होता
काश ! काश ! काश !
       इस काश का जवाब ना तो रेयान इंटरनेश्नल की लाखों दलीलों में है और ना सरकार के हजारों भरोसे में....बस शब्द हैं...सवाल हैं और सवालों पर सवाल है । 

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